ऋषि विश्वामित्र एक बेहद प्रबुद्ध, ऋषि थे। कौशिकी नदी के किनारे उनका आश्रम हिमालय में था। वास्तव में कौशिकी विश्वमित्र की बड़ी बहन थी जो नदी बन गई। उसके करीब रहने के लिए, उन्होंने नदी के किनारे पर अपना आश्रम स्थापित किया। ऋषि बनने से पहले, विश्वामित्र एक शक्तिशाली राजा थे। वह कुष्नाथ और राजा गथी के पुत्र थे। कुश कबीले में पैदा होने के कारण, उन्हें कौशिक कहा जाता था। उनके पास सौ बेटे थे और उनके जैसे बहादुर थे और उन्होंने पृथ्वी पर एकमात्र राजा के रूप में शासन किया। एक दिन, वह जंगल में अपनी सेना के साथ शिकार गए उन्होंने वहां एक बहुत प्यारा शांतिपूर्ण आश्रम देखा, जो ऋषि वशिष्ठ से संबंधित था। राजा विश्वमित्र वहां गए और खुद को पेश किया। वशिष्ठ ने उनकी ओर देकर कहा कि राजा और उसके साथियों को रात के लिए आश्रम में आराम करना चाहिए। सेना ने शिविर की स्थापना की। वशिष्ठ के आश्रम में एक चमत्कारी गाय नंदिनी थी, जिसे कामधेनु कहा जाता था। नंदिनी की मदद से ऋषि वशिष्ठ ने राजा विश्वमित्र और उनकी सेना के सभी संभव आराम और आवश्यकताओं की व्यवस्था की। विश्वमित्र भव्य आतिथ्य में चकित थे, क्योंकि उनके पास महल में ऐसी शानदार चीजें नहीं थीं। उन्होंने पाया कि खाने पीने की सारी व्यवस्था गाय नंदिनी द्वारा की गई थीं। ये सब देख कर अब विश्वामित्र खुद के लिए गाय चाहते थे । हालांकि, ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें समझाया कि नंदिनी एक साधारण वस्तु नहीं थी जिसे दिया जा सकता था। वह देवी की तरह आश्रम का एक सम्मानित सदस्य है लेकिन विश्वामित्र को विश्वास नहीं था। उन्होंने बलपूर्वक नंदिनी को लेने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने विश्वमित्र और उनके सैनिको पर हमला करने के लिए सैकड़ों सैनिकों की एक सेना बनाई। क्रोध और बदले से भरे , विश्वामित्र ने अपने सौ बेटों को इकट्ठा किया और आश्रम पर हमला किया। तभी वशिष्ठ ने उन्हें कुचलने के लिए अपने लकड़ी के कर्मचारियों को उठाया और पूरी सेना पत्थर में बदल गई थी। विश्वामित्र और उनकी सेना के सौ पुत्र सभी मारे गए थे। सेना तथा पुत्रों के के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र का राजतिलक कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। वहाँ पर उन्होंने कठोर तपस्या की और महादेव जी को प्रसन्न कर लिया। महादेव जी को प्रसन्न पाकर विश्वामित्र ने उनसे समस्त दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र बदला लेने के लिये वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे वशिष्ठ जी को ललकार कर उन पर अग्निबाण चला दिया। अग्निबाण से समस्त आश्रम में आग लग गई और आश्रमवासी भयभीत होकर इधर उधर भागने लगे। वशिष्ठ जी ने भी अपना धनुष संभाल लिया और बोले कि मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तू मुझ पर वार कर। आज मैं तेरे अभिमान को चूर-चूर करके बता दूँगा कि क्षात्र बल से ब्रह्म बल श्रेष्ठ है। क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, रुद्रास्त्र, ऐन्द्रास्त्र तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ा जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर मानव, मोहन, गान्धर्व, जूंभण, दारण, वज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश, पिनाक, दण्ड, पैशाच, क्रौंच, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्य, मंथन, कंकाल, मूसल, विद्याधर, कालास्त्र आदि सभी अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। वशिष्ठ जी ने उन सबको नष्ट करके ब्रह्मास्त्र छोड़ने के लिये जब अपना धनुष उठाया तो सब देव किन्नर आदि भयभीत हो गये। किन्तु वशिष्ठ जी तो उस समय अत्यन्त क्रुद्ध हो रहे थे। उन्होंने ब्रह्मास्त्र छोड़ ही दिया। ब्रह्मास्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगा। सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है। अब आप ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शान्त करें। इस प्रार्थना से द्रवित होकर उन्होंने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाया और मन्त्रों से उसे शान्त किया। पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देह क्षात्र बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नीसहित दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन-यापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नहीँ, वे दुःखी ही हुये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करनी चाहिये।

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